दिपेश रोहिला(उभरता छत्तीसगढ़) । आज यातायात नियमों को सलाह समजने वाली जनता और लाल बत्ती को सजावट मानने वाले चालक जहा चलान से ज्यादा जान पर बन आती है, वही अनुशासन की आदत ही सबसे बड़ा इंजन बन सकती है। वर्तमान में भारत की सड़को पर प्रतिदिन कई नए रियालिटी शो शुरू हो जाते है जिसका नाम है कि कौन पहले मरेगा? एक तरफ कोई बिना हेलमेट के हवा को मात देने निकलता है, तो दूसरी तरफ कोई सीट बेल्ट को गले की फांसी समझता है, तो वहीं तीसरी तरफ कोई सिग्नल को लाइट शो मानकर अपनी गाड़ी को धड़धड़ाता निकल जाता है। जैसे कि मानो ट्रैफिक रूल्स नहीं, ट्रैफिक फूल्स है, जिन्हें तोड़ने में ही लोगों को शौर्य का अनुभव होता है।
हर सड़क हर मोड़ पर ट्रैफिक सिपाही कई घंटों सुबह से रात तक अपनी ड्यूटी निभाते निभाते सिटी बजा-बजा कर बहरा हो चुका है और जनता इतनी स्मार्ट हो गई है कि चालान से बचने के लिए कैमरे की लोकेशन तक याद रखती है पर नियम याद नहीं रखती है। यही हमारी सड़क संस्कृति की सबसे बड़ी दुर्घटना है। यातायात नियमों का उल्लंघन करने वाले चालक अक्सर यह सोचते हैं कि पकड़े गए तो कुछ 100, 500 या 1000 रुपए का चालान भर देंगे लेकिन वास्तविक नुकसान उससे कही और गहरा होता है।
इस मंशा से नुकसान यह है कि तेज़ रफ्तार, ओवरटेक और मोबाइल में बात करते हुए गाड़ी चलाना यही 3 कारण हर साल लाखों जानें लिल जाते है, एक सेकंड की गलती फिर पूरी ज़िंदगी में अंधेरा सा चा जाता है एक सड़क दुर्घटना सिर्फ चालक को नही मारती, पूरे परिवार को तोड़ देती है एक मां की गोद सूनी होने के साथ साथ एक बच्चा अनाथ हो जाता है। लेकिन हमारे देश में जब तक कोई अपना हादसे का शिकार नहीं होता तब तक सड़क पर सबको अमर समझ लिया जाता है। जिसके बाद व्यक्ति परलोक सिधार लिया तो फोटो में फूलों की माला या फिर किसी हादसे में घायल व्यक्ति महीनों तक बिस्तर पर जिंदा लाश की तरह और इलाज का खर्च लाखों में, बीमा क्लेम की जटिलता फिर नौकरी की अनिश्चितता एक चूक पूरी आर्थिक स्थिति हिला देती है, मगर आर्थिक स्थिति से कमजोर इंसान ही अपनी जिंदगी के मायने को सही तरीके से समझ पाता है जिसे कि रास्ते में किसी रसूखदार द्वारा अपनी चार चक्का वाहन से हल्की ठोकर मार देने पर भी वह बेचारा हंसता हुआ अपनी राह पर निकल पड़ता है। इतना ही नहीं यह सब तो एक आम बाते हो चुकी इसके अलावा नियमों का पालन न करने से ट्रैफिक जाम, एम्बुलेंस की देरी, और कई बार ज़रूरतमंद की तड़पते तड़पते ट्रैफिक सिग्नल या अस्पताल जाने से पहले ही रास्ते पर मौत, सिर्फ सच्चाई यही है कि आज सड़क पर अनुशासन की कमी समाज की जीवनरेखा रोक रही है। इसके बावजूद भी कई बार गलती चालकों द्वारा किए जाने पर पुलिस उन्हें पकड़ती है और फिर वे हंगामा करते है, और फिर आज आधुनिक जमाने में वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल होते है फिर समाज में एक ग़लत छवि बन जाती है कि 'देखो' फिर वही नियम तोड़ने वाला!
बता दूं कि सड़कें सिर्फ़ गाड़ियों के लिए नहीं होती वे समाज के संस्कारो का प्रतिबिंब होती है जहां लोग ट्रैफिक नियमों का पालन करते हैं, वहां अनुशासन और संवेदनशीलता झलकती है मगर जब कोई चालक लालबत्ती पार करता है वह सिर्फ़ नियम नहीं तोड़ता बल्कि एक बच्चे की सुरक्षा, एक वृद्ध की आशा, और एक एम्बुलेंस की राह भी काट देता है।
कि “कानून सबके लिए समान नही???
कि “तेज चलना ही दम है?
या फोटो कैमरा नहीं तो नियम भी नहीं? : यही सोच धीमे जहर की भांति संपूर्ण समाज की मानसिकता को दूषित कर दे रही है फिर वही लोग ऑफिस में देर होने पर लालबत्ती तोड़ते हैं एवं अदालत में कानून की दुहाई देते दिखाई देते है।
एक कहावत थी जो जमींदोज हो गई कि जान बचे तो जहान है :
एक व्यक्ति हेलमेट पहनता है, सीट बेल्ट लगाता है, सिग्नल पर रुकता है, सड़क की लाइन बदलते वक्त अपने वाहन की इंडिकेटर देता है। वह व्यक्ति भले कोई बड़ा पराक्रम नहीं कर रहा मात्र सिर्फ और सिर्फ इंसानियत निभा रहा है क्योंकि नियमों का पालन करने वाला चालक न सिर्फ अपनी जान की रक्षा करता है बल्कि दूसरों के जिंदगी का सम्मान भी करता है, जो यह आदत उसे आत्मविश्वास देती है। जब हर व्यक्ति नियमों को अपना लेता है, तब कानून लागू होने की बजाय संस्कृति बन जाती है जिससे की सड़क पर शांति व्यवस्था और समय की बचत होती है। जुर्माना ईंधन की बर्बादी और दुर्घटना से होने वाले खर्च से बचा जा सकता है। हर सिग्नल पर एक मिनट रुकना कभी कभी एक नहीं कई इंसानों की पूरी जिंदगी बचा देता है।
नई पीढ़ी के लिए एक उदाहरण :
बच्चे वही सीखते हैं जो देखते है, अपने देश के प्रति जज्बा रखने वाले आज के नाबालिग बच्चे के हाथों में जब वाहन परिजन दे देते है और यह भी नहीं जानते कि आगे मौत खड़ी है वह सही तरीके से वहां चलने जानता भी है या नहीं, मगर जब वही माता पिता हेलमेट और सीट बेल्ट लगाते है, तब बच्चा समझता है कि नियम शर्म की बात है। जिसके जिम्मेदार स्वयं खुद उनके परिजन होते है यदि कोई जब तक एक बड़ी घटना या किसी की मृत्यु ना हो।
आज के नाबालिगों को हमें चालान नहीं, वाहन की चाल चाहिए और वह भी अत्र–तत्र :
विडंबना यह है कि हमारे देश में लोग मंदिर जाते वक्त चप्पल तक उतार देते है लेकिन सड़क पर आते ही समझदारी उतार देते है, ट्रैफिक पुलिस को देखकर गाड़ी धीमी, और जाते ही फिर स्पीड का भूत सवार हो जाता है। बुलेट अगर मिल गई तो सबसे पहले साइलेंसर मोडिफाइड यह वही मानसिकता है जो कहती है नियम दूसरों के लिए हैं, मेरे लिए नहीं अगर सरकार हर सिग्नल पर “भूत पुलिस” भी बैठा दे, तब भी यह सोच नहीं बदलेगी जब तक “अंदर का सिग्नल” हरा नहीं होता, नियम तो किताब में है, पर समझ सड़क पर चाहिए क्योंकि सड़कें विकास की नहीं विवेक की परीक्षा है। यातायात नियमों का पालन करना किसी मजबूरी का नाम नही है बल्कि जीवन जीने की सबसे सस्ती और असरदार बीमा पॉलिसी है।
: आज जरूरत है चलान से नही, चाल से डरने की यानी कि अपनी गलतियों से। क्योंकि हेलमेट सिर की रक्षा करता है और नियम जीवन की। अगर सड़कें सुरक्षित हो, तो देश का सफर भी सुरक्षित होगा। जो ट्रैफिक नियमो को बोझ समझते है वे अपने परिवार को दर्द देने की तैयारी कर रहे हैं सड़क पर सभ्यता का सबसे सुंदर रूप वही है जब वाहन से पहले विवेक चलता है।

