मोबाइल युग के बच्चे : उँगलियों में बचपन, आँखों में स्क्रीन – (उभरता छत्तीसगढ़)

मोबाइल युग के बच्चे : उँगलियों में बचपन, आँखों में स्क्रीन – (उभरता छत्तीसगढ़)

Dipesh rohila
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ज्ञान की गति या भ्रम की रफ्तार, नुकसान की भी आएगी बारी, स्क्रीन की भी होगी गुलामी
पत्थलगांव (दिपेश रोहिला) । कभी एक समय था जब बच्चे मिट्टी में खेला करते थे मगर अब मोबाइल पकड़कर खेलों में लेवल पार करने में लगे हैं। पहले बच्चे पेड पर चढ़ने की कला सीखते थे, अब नेटवर्क बार चढ़ते हैं। पहले माँ की गोद में कहानी सुनते थे लेकिन अब यूट्यूब किड्स में भूतों की कहानी देखते हैं और माता पिता गर्व से कहते है हमारा बेटा तो 2 साल में ही मोबाइल चलाने लगा। कि जैसे कोई राष्ट्रीय उपलब्धि हासिल कर ली हो, आज के बच्चे पैदा होते ही लोरी नहीं मोबाइल की रिंगटोन सुनते हैं जिस पल डॉक्टर कहता है बधाई हो बेटा हुआ है उसी पल पिता सोचते है। अब इसे कौन सा मॉडल का मोबाइल दिलाऊँ/ जहां पहले बच्चे, गिल्ली डंडा, छुपम छुपी, छुआछूत, अनेक खेल खेलते थे वहीं अब टचस्क्रीन के मोबाइल में दिन रात आंखे गड़ाए होते है। पहले घर में माँ कहती थी बेटा रोटी खा ले, अब कहती है बेटा जरा चार्जर दे दे। मोबाइल ने बच्चों को इतना समझदार बना दिया है कि वे अब पेंसिल कम पकड़ रहे और सिर्फ मोबाइल के पावर बटन जानते हैं। उन्हें किताब के पन्नों की खुशबू से जयादा इंस्टाग्राम की रील का फिल्टर पसंद है, पहले बच्चे आँखों से दुनिया देखते थे, अब स्क्रीन से, बस फर्क इतना है कि पहले बचपन खुलकर मन मौज होकर बाहर खेलता था अब मात्र मोबाइल अंदर जल रहा है।

कहते है मोबाइल ने बच्चों की बुद्धि तेज कर दी है। हा, अब वो इतने तेज हैं कि मां की डांट से पहले फ्लाइट मोड ऑन कर देते है मोबाइल से ज्ञानवर्धन भी खूब हो रहा है अब 5 साल का बच्चा जानता है कि डोरा द एक्सप्लोरर(कार्टून) कौन है, पर स्वामी विवेकानंद,एपीजे अब्दुल कलाम,नेता जी सुभाष चंद्र बोस, कौन थे ये गूगल से पूछना पड़ेगा। शिक्षा में भी क्रांति आ गई है पहले बच्चे स्कूल जाकर गुरुजी से पढ़ते थे, अब मोबाइल पर “गूगल जी” से। पहले होमवर्क नहीं करने पर बहाने बनते थे अब नेट नहीं था सबसे भरोसेमंद कारण बन गया है। ऑनलाइन क्लास ने बच्चों को अनुशासन सिखाया है कैमराऑन, माइक्रोफोन म्यूट, और गेम बैकग्राउंड में मन लग गया। मोबाइल से बच्चों में क्रिएटिविटी भी बढ़ी है अब वे मिट्टी से घर नहीं बनाते, मिनीक्राफ्ट में महल बनाते हैं। पहले दोस्ती गली-मोहल्ले की होती थी, अब फ्रेंड लिस्ट की होती है। पहले झगड़ा मारपीट में होता था अब अनफॉलो और ब्लॉक में होता है।

नुकसान की भी आएगी बारी, स्क्रीन की भी होगी गुलामी

मोबाइल ने बच्चों को दुनिया की हर चीज़ दिखा दी सिवाय असली दुनिया के, अब बच्चे सूरज से नहीं ब्राइटनेस से आंखे सिकोडते हैं। पहले मां कहती थी बाहर जाओ खेलो, अब कहती है थोड़ा बाहर देख भी लिया कर खिड़की से ही सही। मोबाइल ने बच्चों को संपर्क में तो रखा पर संवेदनहीन बना दिया है, पहले बच्चे गिरकर रोते थे तो चोट लगने पर मां पुकारते थे,
अब स्मार्टफोन गिरने पर रोते हैं और सर्विस सेंटर पहुंचते है। बातचीत अब इमोजी में होती है, दिल का इमोजी भेजो तो प्यार समझो, आँसू वाला भेजो तो दुख समझो, और हँसी वाला भेजो तो दोस्ती समझो। असली हँसी कब की मोबाइल की वाइब्रेशन में खो गई, बच्चों की आंखे अब बचपन नहीं ब्लू लाइट देखती हैं। नींद उड़ गई है, ध्यान बिखर गया है और आत्मीयता तो ऐसे जैसे एयरप्लेन मोड में चली गई है, पहले बच्चे खो जाने पर ढूँढे जाते थे अब ऑनलाइन न दिखने पर चिंता होती है।

आज माता-पिता खुद मोबाइल में इतने मग्न हैं कि बच्चे को चुप कराने का सबसे आसान उपाय है “ले बेटा, मोबाइल रख ले” यानी बच्चा रोए तो मोबाइल, खाए तो मोबाइल सोए तो मोबाइल और पढ़े तो मोबाइल, अब तो कुछ माता पिता कहते हैं हमारा बेटा मोबाइल पर इतना व्यस्त रहता है कि हमें गर्व है कोई शरारत नहीं करता। उन्हें शायद नहीं पता कि शरारतें ही इंसान को इंसान बनाती हैं मशीन नहीं, आज बच्चे HEY GOOGLE से बात करते हैं माँ-बाप से नहीं। पहले पिता पूछते थे क्या पढ़ रहा है अब कहते है कितने फॉलोअर्स बढ़े।

वास्तविकता की हकीकत

मोबाइल ने बच्चों के जीवन को वर्चुअल बना दिया है दोस्त वर्चुअल खेल वर्चुअल, प्यार वर्चुअल और यहाँ तक कि हँसी भी फिल्टर वाली, अब बच्चे सेल्फी लेते है ताकि याद रहे कि वो कभी मुस्कुराए थे। सोशल मीडिया पर जितना खुश दिखते हैं उतना अकेले में टूटे रहते हैं, सच तो यह है कि मोबाइल ने बचपन को डेटा पैक बना दिया है। हर दिन खत्म होता है और अगले दिन फिर रिचार्ज करना पड़ता है। जो कभी बचपन कहा जाता था अब वो स्क्रीन टाइम रिपोर्ट में नापा जाता है।

थोड़ी उम्मीद की किरण–

फिर भी दोष मोबाइल का नहीं हमारी सोच का है, मोबाइल एक साधन है, साध्य नहीं। अगर हम बच्चों को मोबाइल का सही उपयोग सिखाएँ
तो वही मोबाइल उन्हें दुनिया के कोने-कोने का ज्ञान दे सकता है,
पर शर्त ये है कि मोबाइल बच्चों को चलाए नहीं बच्चे मोबाइल को चलाएँ। माता पिता अगर एक घंटा बच्चे के साथ मैदान में बिताएँ तो मोबाइल अपने आप फीका लगने लगेगा, अगर बच्चा असली दोस्त बनाएगा तो ऑनलाइन फ्रेंड रिक्वेस्ट की अहमियत घट जाएगी। अगर घर में बातचीत होगी तो चैट बॉक्स की जरूरत नहीं रहेगी। 

यह 21वीं सदी का बचपन मोबाइल की स्क्रीन में खो गया, मिट्टी, धूप, बारिश, दोस्ती सब डेटा लिमिट में सिमट गई। बचपन अब खेल का मैदान नहीं गेम ऐप्लिकेशन है, जहाँ लेवल पार करने का मतलब है एक दिन और बचपन कम हो जाना, मोबाइल जीवन का हिस्सा बने जीवन न बने, क्योंकि जब बचपन स्क्रीन में सिमट जाता है तो ज़िंदगी सिग्नल ढूँढती रह जाती है।

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